धीरज धर्म मित्र अरु नारी, आपदकाल परिखिअहिं चारी |कि सीताजी! आपको श्रीराम परमप्रिय और पता था की प्रभु श्रीराम चित्रकूट के वन से विदा ले रहे हैं। वे सीता जी व लक्ष्मण केसाथ अत्रि मुनि के आश्रम में जाते हैं। वहां अत्रि मुनि की पत्नी अनुसुइया जीसीता जी को पतिव्रता स्त्रियों के बारे में बताती हैं। हालांकि वे कहती हैंकथा तो मैंने संसार की स्त्रियों के लिए सुनाई है। इसके साथ हीअनुसुइया जी ने यह भी बताया कि विपत्ति के समय ही धैर्य, धर्म, मित्रऔर स्त्री की पहचान होती है। उधर, अत्रि मुनि ने श्रीराम की भावपूर्ण वंदना की और श्रीराम ने उनका आशीर्वाद लेते हुए कहा कि हे मुनि मैं किसी दूसरे वन में जाना चाहता हूं, इसकी आज्ञा दीजिए। अभी तो मुनि प्रभु राम जी की विनती करके निवेदन कर रहे हैंबिनती करि मुनि नाइ सिरु कहकर जोरि बहोरि। चरन सरोरुहनाथ जनि कबहुंतजै मति मोरि। अत्रि मुनि ने इस प्रकार विनती करके और फिम सिर नवाकर, हाथ जोड़कर कहा, हे नाथ!मेरी बुद्धि आपके चरण कमलों को कभी न छोड़े। अनसुइया के पद गहि सीता, मिली बहोरि सुसील बिनीता। रिषि पतिनी मन सुख अधिकाई, आसिष देइ निकट बैठाई। दिव्य बसन भूषन पहिराए, जे नित नूतन अमल सुहाए। कह रिषि बधू सरस मृदुबानी, नारिधर्म कछुव्याज बखानी। मातु पिता भ्राता हितकारी, मितप्रद सब सुनु राज कुमारीअमित दानि भर्ता बयदेही, अधम सो नारि जो सेव न तेही। धीरज धर्म मित्र अरु नारी, आपद काल परिखिअहिंचारी। वृद्ध रोगबस जड़धनहीना, अंध बधिर क्रोधी अति दीना। ऐसेहु पति कर किएं अपमाना, नारि पाव जमपुर दुख नाना। एकइ धर्म एक ब्रत नेमा, कायं बचन मन पति पद प्रेमा। जग पतिब्रता चारि विधि अहहीं, बेद पुरान संत सब कहहीं। उत्तम के अस बस मन माहीं, सपनेहं आन पुरुष जग नाहीं। मध्यम परपति देखइ कैसे, भ्राता पिता पुत्र निज जैसें। धर्म बिचारि समुझि कुल रहई, सो निकिष्ट त्रिय श्रुति अस कहई। बिनु अवसर भय तें रह जोई, जानेहु अधम नारि जग सोई। पति बंचक परपति रति करई, रौरव नरक कल्पसत परई। छन सुख लागि जनम सतकोटी, दुख न समझ तेहि सम को खोटी। विनु श्रम नारि परम गति लहई, पतिब्रत धर्म छाडि छल गहई। पति प्रतिकूल जनम जहं जाई, बिधवा होइ पाइ तरुनाई। मुनि अत्रि प्रभु श्रीराम की बिनती कर रहे थे, तभी सीताजी ने ऋषि पत्नीअनुसुइया जी के चरण पकड़कर उनकी विनती की। परम शीलवती और विनम्र सीता जी की विनय से अनुसुइया जी को बड़ा सुख मिला। उन्होंने आशीर्वाद देकर सीता जी को अपने पास बैठा लिया और उन्हें ऐसे दिव्य वस्त्र और आभूषण पहराए जो नित्य नए निर्मल और सुहावने बने रहते हैं। इसके बाद अनुसुइया जी ने सीता जी को आधार मानकर स्त्रियों के कुछधर्म बखान किये। वे कहने लगीं- हे राजकुमारी (सीता) सुनिए, माता,|पिता भाई सभी हित करने वाले हैं लेकिन ये सब एक सीमा तक ही सुख देने वाले हैं। लेकिन हे जानकी, पति तो असीम सुख देने वाला है, मोक्ष प्राप्त कराता है, वह स्त्री अधम है जो ऐसे पति की सेवा नहीं करती। अनुसुइया जी ने कहा कि धैर्य, धर्म, मित्र और स्त्री-इन चारों की विपत्ति के समय हीसमय हापरीक्षा होती है। इसलिए वृद्ध, रोगी, मूर्ख, निर्धन, अंधे, बहरे, क्रोधी औरदरिद्र पति का भी अपमान करने से स्त्री यमपुर में भांति-भांति के दुख पाती है। शरीर, बचन और मन से पति के चरणों में प्रेम करना स्त्री के लिए बस एक ही धर्म है, एक ही व्रत है और एक ही नियम है। अनुसुइया जी ने कहा जगत में चार प्रकार की पतिव्रताएं हैं। वेद, पुराण और संत यही कहते हैंउत्तम श्रेणी की पतिव्रता के मन में ऐसा भाव बसा रहता है कि जगत में मेरे|पति को छोड़कर दूसरा पुरुष स्वप्न में भी नहीं है। मध्यम श्रेणी की पतिव्रता पराए पति को कैसे देखती है, जैसे उम्र के अनुसार उसका सगा भाई पिता या पुत्र हो, समान उम्र वाले को भाई, छोटे को पुत्र और बड़े को पिता। इसकेअलावा तीसरी श्रेणी में वह स्त्री आती है जो अपने धर्म को विचार कर और कुल की मर्यादा को ध्यान में रखकर मन मारकर रहती है, वह स्त्री निकृष्ट (निम्न श्रेणी) है, ऐसा वेद कहते हैं। चौथी श्रेणी की स्त्री के बारे में अनुसुइया जी कहती हैं कि जो स्त्री मौका न मिलने या डर के मारे पतिव्रता बनी रहती है, जगत में उसे अधम स्त्री समझना चाहिए। इसके अलावा पति को धोखा देने वाली जो स्त्री पराए पति से रति (शारीरिक संबंध) करतीहै, वह तो सौ कल्प तक रौरव नर्क में पड़ी रहती है। अनुसुइया जी कहतीहैं कि क्षण भर के सुख के लिए जो सौ करोड़ (असंख्य) जन्मों के दुख कोनहीं समझती, उसके समान दुष्टा कौन होगी और जो स्त्री छल छोड़कर पतिव्रत धर्म का पालन करता है. वह बिना हा श्रम क परमगात अथात् माक्षी को प्राप्त कर लेती है लेकिन जो पति के प्रतिकूल चलती है, वह जहां भीजाकर जन्म लेती है, वहीं भरी जवानी में विधवा हो जाती है। सहज अपावनि नारि, पति सेवत सुभगति लहइ। जसु गावत श्रुति चारि, अजहुं तुलसिका हरिहि प्रिय। सुनु सीता तवनाम सुमिरि नारि पतिब्रत करहिं। तोहि प्रानप्रिय राम कहिउंकथा संसार हित। सुनि जानकी परम सुखु पावा, सादर तासु चरन सिरु नावा। तब मुनि सन कह कृपानिधाना, आयसु होइ जाउंबन आना। संतत मो पर कृपा करेहू, सेवक जानि तजेह जनि नेहू। धर्म धुरंधर प्रभु कै बानी, सुनि सप्रेम बोले मुनि ग्यानी। अनुसुइया जी कहती हैं कि स्त्री जन्म से ही अपवित्र है लेकिन पति की सेवा करने से वह अनायास ही शुभ गति प्राप्त कर लेती है। पतिव्रता होने के कारण ही आज भी तुलसी भगवान को प्रिय है (भगवान के प्रसाद में तुलसी दल डाला जाता है) और चारों वेद उनका यश गाते हैं। हे सीता सुनो। तुम्हारा तो नाम ही लेकर स्त्रियां पतिव्रत धर्म का पालन करेंगी, तुम्हेंतो श्रीराम जी प्राणों के समान प्रिय हैं, यह पतिव्रता स्त्रियों की कथा तो मैंने सांसारिक स्त्रियों के लिए कही है। जानकी जी को माता अनुसुइया की येबातें बहुत ही सुखप्रद लगीं। उन्होंने आदरपूर्वक उनके चरणों में सिर नवाया, तभी कृपानिधान श्रीराम ने मुनि से कहा कि आज्ञा हो तो अब किसी अन्यवन में जाऊं। श्रीराम ने कहा कि हे मुनि, आप निरंतर कृपा करते रहिएगाऔर अपना सेवक जानकर स्नेह न छोड़िएगा। धर्म धुरंधर प्रभु श्री राम के बचन सुनकर ज्ञानी मुनि अत्रि प्रेमपूर्वक बोलेजासु कृपा अजसिव सनकादी, चहत सकल परमारथवादी। ते तुम्ह राम अकाम पिआरे, दीनबंधु मृदु बचन उचारे। । अत्रि मुनि ने कहा, ब्रह्मा, शिव, सनकादि सभी परमार्थवादी जिनकी कृपा चाहते हैं, हे रामजी आप वही निष्काम पुरुषों के भी प्रिय और दीनों के बंधु |भगवान हैं, जो इस प्रकार के कोमल बचन बोल रहे हैं। -क्रमशः (शांतिप्रिय-हिफी)
हरि अनंत हरिकथा अनंता (249)